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अधिकार और कर्तव्य का सम्बन्ध-Adhikar Aur Kartvya ka Sambandh

नमस्कार दोस्तों आप सबका हमारे वेबसाइट में बहुत-बहुत स्वागत है दोस्तों आज हम बात करने जा रहे हैं अधिकार और कर्तव्य का सम्बन्ध के बारे में दोस्तों साधारणतया अधिकार और कर्तव्य को एक दूसरे का विरोधी समझा जाता है अधिकार का आशय लिया जाता है। कि कोई विशेष व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को किसी प्रकार का कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता है। इस प्रकार अधिकार का प्रयास लाभ उठाने से लिया जाता है कर्तव्य का तात्पर्य है दूसरों के लिए कोई कार्य करना और इस कारण इसे व्यक्तिगत हानि के रूप में समझा जाता है। किंतु इस प्रकार का दृष्टिकोण मिथ्या भ्रमात्मक है। वस्तुतः अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे के पूरक हैं और एक के अभाव में दूसरे की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

तो चलिए दोस्तों अब हम आगे बढ़ते हैं और जानते हैं अधिकार और कर्तव्य का संबंध के बारे में बस आप लोग इस आर्टिकल को अंत तक जरूर पढ़े हैं, तभी समझ में आएगा।

अधिकार और कर्तव्य का पारस्परिक संबंध निम्न रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है:

अधिकार और कर्तव्य का सम्बन्ध
1. एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य है
2. व्यक्ति का अधिकार उसका यह कर्तव्य निश्चित करता है कि वह दूसरों के समान अधिकार को स्वीकार करें
3. नागरिक का अधिकार राज्य का कर्तव्य।
4. व्यक्ति का अधिकार समाज के प्रति उसका कर्तव्य है
5.
व्यक्ति के अधिकार राज्य के प्रति उसके कर्तव्य निर्धारित करते हैं
व्यक्ति के अधिकार राज्य के प्रति उसके कर्तव्य निर्धारित करते हैं

1. एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य है-( Ek vyakti ka Adhikar dusre vyakti ka Kartavya hai)

दोस्तों अधिकार एक व्यक्तिगत प्रश्न नहीं वरन् आवश्यक रूप से एक सामाजिक प्रश्न है। सहयोग के द्वारा ही अधिकार अस्तित्व में आते हैं और सहयोग के द्वारा ही उनका उपयोग किया जाता है। वस्तुतः एक व्यक्ति का अधिकार समाज के दूसरे व्यक्तियों का कर्तव्य होता है और व्यक्ति के अधिकार इस बात पर निर्भर करते हैं, कि समाज के दूसरे व्यक्ति उसके प्रति अपने कर्तव्य का किस सीमा तक पालन करते हैं। उदाहरण के लिए, मैं अपने विचार और भाषण की स्वतंत्रता के अधिकार का उसी समय उपयोग कर सकता हूं जबकि दूसरे लोग मेरे इस कार्य में किसी प्रकार की बाधा न डालें।

2. व्यक्ति का अधिकार उसका यह कर्तव्य निश्चित करता है कि वह दूसरों के समान अधिकार को स्वीकार करे-( vyakti ka Adhikar uska yah Kartavya nishchit karta hai ki vah dusron ke Samman Adhikar ko swikar Kare)

अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त होते हैं और ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति का अधिकार उसका यह कर्तव्य निश्चित करता है कि वह दूसरे व्यक्तियों के किसी प्रकार के समान अधिकारों को स्वीकार करें। यदि मुझे संपत्ति का अधिकार है तो इस अधिकार के साथ ही मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं दूसरे व्यक्तियों की संपत्ति को नष्ट करने का प्रयत्न ना करूं। डॉ. बेनी प्रसाद ने ठीक ही कहा है कि´´ यदि प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने अधिकार का ही ध्यान रखें तथा दूसरों के प्रति कर्तव्यों का पालन ना करें तो शीघ्र ही किसी के लिए भी अधिकार नहीं रहेंगे

3. नागरिक का अधिकार राज्य का कर्तव्य( Nagrik Ka Adhikar Rajya Ka Kartavya)

अधिकार की परिभाषा करते हुए कहा जाता है कि अधिकार व्यक्ति का वह दावा है कि जिसे समाज स्वीकार करता है और रज्य लागू करता है। इस प्रकार व्यक्ति के अधिकार राज्य के अधिकारों को लागू करने की क्षमता और तत्परता पर निर्भर करते हैं। यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों में कोई दूसरा व्यक्ति या सरकारी अधिकारी बाधक सिद्ध होता है तो राज्य का कर्तव्य होता है कि उसे दंड दे और इस प्रकार व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करें।

4. व्यक्ति का अधिकार समाज के प्रति उसका कर्तव्य है( vyakti ka Adhikar Samaj ke Prati uska Kartavya hai)

राज्य के द्वारा व्यक्ति को अधिकार प्रदान करने का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास और सामूहिक रूप से संपूर्ण समाज की उन्नति होता है। अतः व्यक्ति का अधिकार उसका यह कर्तव्य निश्चित करता है कि उसका उपयोग इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाए। अधिकार का उचित ढंग से प्रयोग करना व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य हो जाता है। राज्य के द्वारा विचार और भाषण की स्वतंत्रता का अधिकार मुझे स्वयं अपनी और संपूर्ण समाज की उन्नति के लिए दिया गया है और यदि मेरे द्वारा इस अधिकार का प्रयोग किसी दूसरे व्यक्ति के मानहानि न्यायालय के अपमान या सदाचार के नियमों के विरुद्ध किया जाए, तो मेरे इस अधिकार को भी सीमित किया जा सकता है और विशेष परिस्थितियों में इस अधिकार को समाप्त किया जा सकता है।

5. व्यक्ति के अधिकार राज्य के प्रति उसके कर्तव्य निर्धारित करते हैं-( vyakti ke Adhikar Rajya ke Prati Uske Kartavya nirdharit Karte Hain)

राज्य के द्वारा व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता, शिक्षा और संपत्ति का अधिकार प्रदान किया जाता है और राज्य इस बात की व्यवस्था करता है कि व्यक्ति व्यवहार में इन अधिकारों का उपयोग कर सकें। इस प्रकार राज व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा और व्यवस्था के जो कार्य करता है, उन कार्यों के बदले में व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह राज्य का समर्थन और सहयोग करें। राज्य के प्रति भक्ति और निष्ठा रखें और संकट की स्थिति में राज्य के लिए प्रत्येक प्रकार का त्याग करने को तत्पर रहे।

इस संबंध में जैक(jaik) महोदय का कथन है कि´´ प्रत्येक नागरिक को यह स्मरण रखना चाहिए कि समस्त अधिकारों के ऊपर उसका यह अधिकार है कि वह अपने कर्तव्य का पालन करें।´´ भारतीय संविधान में 19 75 ई तक तो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का ही उल्लेख था, लेकिन यह अनुभव किया गया कि अधिकारों के साथ-साथ करते हो वह का भी संविधान में उल्लेख होना चाहिए। अतः 1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर नागरिकों के 10 मूल कर्तव्य और उत्तरदायित्व को स्थान दिया गया है। 86वें संविधान संशोधन (2002) द्वारा एक कर्तव्य इस सूची में बढ़ाया गया है। 11वां कर्तव्य है कि प्रत्येक माता-पिता आपने 6 – 14 वर्ष आयु के बच्चों को अनिवार्य आरंभिक शिक्षा के लिए प्रेरित करें। भारतीय संविधान में की गई यह व्यवस्था अधिकार और कर्तव्य के परस्पर घनिष्ट संबंध को ही स्पष्ट करती है।

निष्कर्ष(Conclusion)

दोस्तों अधिकार और कर्तव्य दोनों ही सार्वजनिक मांगे हैं और एक व्यक्ति के अधिकार दूसरे व्यक्तियों के कर्तव्य-पालन पर ही निर्भर करते हैं। वाइल्ड के शब्दों में कहा जा सकता है कि अधिकारों का महत्व कर्तव्यों के संसार में ही है। अधिकार और कर्तव्य दोनों की ही समाज एकता पर बल देते हुए डॉ. बेनी प्रसाद ने लिखा है कि´´ दोनों ही सामाजिक हैं और दोनों ही तत्व ता सही जीवन की शर्तें जो समाज के सभी व्यक्तियों को प्राप्त होनी चाहिए।

अस्वीकरण(Disclaimer)

दोस्तों यह पोस्ट हमने अपने शिक्षा के अनुभव के आधार पर लिखा है इसलिए यह काफी हद तक सही है अगर आप सबको इस आर्टिकल में कोई मिस्टेक दिखाई पड़ता है तो आप कमेंट करके बता सकते हैं मैं उसे सुधारने का प्रयास करूंगा

Written by skinfo

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