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कर्नाटक का प्रथम युद्ध, द्वितीय युद्ध, तृतीय कब हुआ था -Karnatak ka Pratham yuddh, dwitiya yuddh, tritiya yuddh kab huwa tha

नमस्कार दोस्तों आप सबका हमारे वेबसाइट में बहुत-बहुत स्वागत है दोस्तों में इस आर्टिकल में एजुकेशन से रिलेटेड सबसे महत्वपूर्ण बातें बताने जा रहा हूं जो कि है कर्नाटक का प्रथम युद्ध, द्वितीय युद्ध, तृतीय युद्ध कब हुआ था। यह सारी बातें विस्तार पूर्वक आप सबको बताऊंगा बस आप लोग इस आर्टिकल को अंत तक पढ़े तभी समझ में आएगा तो चलिए दोस्तों अब हम आगे बढ़ते हैं इस आर्टिकल में और जानते हैं कर्नाटक का प्रथम युद्ध द्वितीय युद्ध तथा तृतीय युद्ध के बारे में?

दोस्तों हुआ यू की 17 वी शताब्दी के अंत और 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भारत में अंग्रेजों और फ्रांसीसी यों की व्यापारिक कंपनियां अच्छी तरह स्थापित हो चुकी थी। इस समय की भारतीय राजनीतिक अवस्था और अपनी महत्वकांक्षी के वशीभूत होकर दोनों ही कंपनियां अपने अपने अधिकार क्षेत्र के विकास में लगी हुई थी।पुर्तगाली और डच इस प्रतिस्पर्द्ध मैं अब तक काफी पीछे छूट चुके थे। मैदान में सिर्फ दो ही प्रमुख प्रतिद्वंदी -अंग्रेज और फ्रांसीसी- बच रहे थे। अतः इनके मध्य सर्वोच्चता के लिए संघर्ष होना निश्चित है। इसी संघर्ष का परिणाम कर्नाटक का युद्ध था। जिसमें फ्रांसीसी बुरी तरह असफल रहे और भारतीय व्यापार तक राजनीतिक पर अंग्रेजी सर्वोच्चता स्थापित हो गई। अंग्रेजों और फ्रांसीसी में सर्वोच्च ता के लिए संघर्ष दक्षिण कर्नाटक में आरंभ हुआ 1746 – 63 के मध्य दोनों शक्तियों में तीन महत्वपूर्ण युद्ध हुए जिन्होंने अंततः भारत में फ्रांसीसी यों की 70 लगभग समाप्त कर दी तथा अंग्रेजों की सत्ता स्थापित की इस अवधि के दौरान होने वाले संघर्ष यूरोपीय राजनीति से भी प्रभावित थे। तो चलिए दोस्तों अब हम जानते हैं कर्नाटक का प्रथम युद्ध, द्वितीय युद्ध, तथा तृतीय युद्ध के बारे में-

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (The First Karnataka War)

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1946 – 48)-

दोस्तों अंग फ्रांसीसी प्रतिद्वंदिता उग्र रूप में दक्षिण भारत में उभरी। इस नाटक का केंद्र कर्नाटक बना। तत्कालीन दक्षिण भारतीय राजनीतिक विशेषता कर्नाटक की आंतरिक स्थिति में दोनों शक्तियों को ताकत आजमाने का मौका प्रदान किया। मुगल साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर दक्षिण में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का उदय हो चुका था। इन राज्यों में अपनी संघर्ष होते रहते थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों ही अपनी अपनी सत्ता कायम करने का सपना देख रहे थे। इसी समय 1740 ई. में आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हुआ। इस युद्ध के प्रतिध्वनी जहां जहां भी अंग्रेज और फ्रांसीसी थे हुई भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। यहां भी अंग्रेजों और फ्रांसीसी यों में संघर्ष आरंभ हो गया। एक इतिहासकार के अनुसार तो कर्नाटक का प्रथम युद्ध ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध का विस्तार मात्र था।

युद्ध का आरंभ इस कारण हुआ कि अंग्रेजी नौ-सेना ने कुछ फ्रांसीसी जवानों को अपने कब्जे में ले लिया था। डुप्ले (पांडीचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर) अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए मारीशस के फ्रांसीसी गवर्नर ला बूर्डोने से सहायता की मांग की। वह शीघ्र ही सैनिकों के साथ डूप्ले की सहायता के लिए पहुंच गया। दोनों मैं मद्रास का रुख किया जो दक्षिणी में अंग्रेजी सत्ता का केंद्र था। मार्ग में फ्रांसीसी होने अंग्रेजों को जल युद्ध में पराजित कर दिया। मद्रास पहुंचकर फ्रांसीसी सेना ने नगर को घेर लिया तथा क्लाइव सहित अनेक अंग्रेजों को बंदी बना लिया।ला-बूर्डोने अंग्रेजों से हर्जाना वसूल कर उन्हें मद्रास लौटा देना चाहता था। परंतु डूप्ले इसके विरुद्ध था। अतः उसने फिर से मद्रास पर अधिकार कर लिया जिसे ला-बूर्डोने ने 4 लाख पोंड के बदले अंग्रेजों को वापस कर दिया था। यह घटना सितंबर 1746 की है। डूप्ले में फोर्ट सेंट डेविड और अंग्रेजों ने पांडिचेरी पर कब्जा करने की असफल चेष्टाएँ की।

डूप्ले द्वारा मद्रास पर पुनः अधिकार कर लेने से अंग्रेजों के हौसले पस्त पड़ गए। उन लोगों ने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन से मदद मांगी। नवाब भी दोनों के युद्ध से परेशान था और उसने दोनों कंपनियों को युद्ध समाप्त करने की आज्ञा दी परंतु डूप्ले ने नवाब को झूठा आश्वासन दिया कि वह मद्रास नवाब के लिए ही जीत रहा है। तथा इसे जीतकर वह नवाब को सौंप देगा। इस पर नवाब शांत हो गया। डूप्ले ने अपना वचन पूरा नहीं किया और लूट का सारा माल स्वयं रख लिया तथा मद्रास पर भी अधिकार बनाइए रखा। क्रूद्ध पोकर कर्नाटक के नवाब ने मद्रास पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना भेजी ढोकले हताश नहीं हुआ। सेंट टोमे धोनी नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ डुप्ले के पास सिर्फ 230 फ्रांसीसी तथा 700 भारतीय सैनिक थे, जहां नवाब की सेना में 10000 सैनिक थे परंतु कप्तान पैराडाईज ने नवाब के सेना को पराजित कर विदेशी यूरोपीय अनुशासित सेना की ढीली तथा असंगठित भारतीय सेना पर श्रेष्ठता स्पष्ट कर दी। इसी समय 1748 ई. में एक्सलाशेपेल किस संधि द्वारा ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया। फलता भारत में भी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में समझौता हो गया। और युद्ध बंद हो गया। मद्रास अंग्रेजों को वापस मिल गया और उत्तरी अमेरिका में लुइबर्ग (लूबर)का क्षेत्रफल फ्रांसीसियों को को मिल गया।

कर्नाटक के प्रथम युद्ध का महत्व-

कर्नाटक का प्रथम युद्ध यद्यपि भारतीय राजनीति से सीधी तरह संबंधित नहीं था फिर भी इसका प्रभाव भारत पर पड़े बिना नहीं रह सका इस युद्ध में भारतीय राजनीति के खोखला एवं शारीरिक दुर्बलता को यूरोपीय शक्तियों के सक्षम स्पष्ट कर दिया कर्नाटक का नवाब एक व्यापारी कंपनी को युद्ध करने से रोकने में असफल रहा इतना ही नहीं नवाब की सेना फ्रांसीसी यों की मुट्ठी भर सेना से पराजित भी हो गई। नवाब की हार ने यूरोपीय शक्तियों को भारतीय राजनीति में ज्यादा दखल देने को प्रोत्साहित किया। इस युद्ध के महत्व पर प्रकाश डालते हुए प्रोफेसर डांडवेल का कहना है इसने डुप्ले के प्रयोग और क्लाइव की कृतियों के लिए रंगमंच खड़ा कर दिया।अब यूरोपीय शक्तियों सिर्फ व्यापारी ना रहकर राजनीतिक शब्द की दावेदार बन गई। मैलिसन के शब्दों में अधीनस्थ की स्थिति वह छलांग मारकर प्रायः प्रभु की स्थिति में पहुंच गए थे।

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (The Second Karnataka War)

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध(1749-54)

एक्सला-शेपेल कि संधि आंग्ल फ्रांसीसी प्रतिद्वंदिता को अस्थाई रूप से शांत कर दिया एवं दोनों को अपना अपना व्यापार करने का मौका प्रदान किया: परंतु यह शांत ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी। शीघ्र ही दोनों शक्तियां सुयोग्य मौके की ताक में लग गई। वस्तु तथा कर्नाटक के प्रथम युद्ध ने डुप्ले की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को प्रज्वलित कर दिया। भारत में फ्रांसीसी आधिपत्य कायम करने के लिए वह व्यग्र हो उठा। ऐसी ही अवस्था अंग्रेजों की भी थी। यह शुभ अवसर दोनों को हैदराबाद तथा कर्नाटक के सिंहासनों के विवादास्पद उत्तराधिकार के कारण प्राप्त हुआ।

1748 ई.में हैदराबाद और कर्नाटक मैं उत्तराधिकार का युद्ध प्रारंभ हुआ। 21 मई 1748 को हैदराबाद के निजाम आसफजाह के मृत्यु के बाद उसका पुत्र नासिरजंग गद्दी पर बैठा, परंतु मृत निजाम के पोते मुजफ्फरजंग ने नासिरजंग को निजाम के रूप में स्वीकार करने से इंकार कर दिया। फलता ग्रह युद्ध की स्थिति पैदा हो गई। उधर कर्नाटक भी अशांत था।कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन के विरोधी स्वर्गीय नवाब दोस्त अली के दामाद चंदा साहब को नवाब बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। इसी अनिश्चित परिस्थिति का लाभ उठाकर डूप्ले अपना प्रभाव क्षेत्र विस्तृत करना चाहता था। अतः उसने इसका लाभ उठाने की योजना बनाई।

डूप्ले ने मुजफ्फर जंग तथा चंदा साहब को समर्थन देने का निश्चय किया। उसने इन दोनों से समझौता कर लिया उसने मुजफ्फरजंग और चंदा साहब को सैनिक सहायता देने का वचन दिया। और उनकी सहायता के लिए फ्रांसीसी सेना की टुकड़ी भेजी।सेना की मदद से अनवरुद्दीन एवं नासिरजंग को पराजित कर एवं उनकी हत्या कर हैदराबाद में मुजफ्फर जंग एवं कर्नाटक में चंदा साहब गद्दी पर आए। फ्रांसीसी सहायता के बदले दोनों ने फ्रांसीसी यों को काफी धन दिया। इसके साथ ही डूप्ले को मुजफ्फरजंग ने कृष्णा नदी के दक्षिण भाग में मुगल प्रदेशों का गवर्नर बहाल कर दिया। उत्तरी सरकारों के कुछ जिले में फ्रांसीसी यों को दे दिए गए। डूप्ले न मुजफ्फरजंग के अनुरोध पर फ्रांसीसी सेना की एक टुकड़ी कप्तान बुस्सी के आधीन हैदराबाद में तैनात कर दी। अब हैदराबाद और कर्नाटक पर फ्रांसीसीयों का सीधा नियंत्रण कायम हो गया। और डूप्ले की शक्ति अत्यधिक बढ़ गई। इन घटनाओ

इन घटनाओं से अंग्रेज आतंकित हो उठे। वह भी किसी ऐसे मौके की ताक में रहने लगे। जिससे फ्रांसीसी पर अंकुश लगाया जा सके। सौभाग्य वस अंग्रेजों को भी इस का मौका मिल गया। स्वर्गीय नवाब अनवरुद्दीन का पुत्र मोहम्मद अली चंदा साहब के डर से भाग कर चित्रन्नापली चला गया जहां वह अंग्रेजी सहायता की अपेक्षा रखता था। चंदा साहब और फ्रांसीसी सेना उसका पीछा करते हुए आगे बढ़ रही थी। अंग्रेजों ने तत्काल ही इस मौके का लाभ उठाकर फ्रांसीसीयों। को पराजित करने की योजना बनाई। उन लोगों ने मोहम्मद अली को अपने संरक्षण में ले लिया और फ्रांसीसीयों से मुकाबले की तैयारी कर ली।

फ्रांसीसीयों ने चित्रन्नापली के दुर्ग को हस्तगत करने की काफी चेष्टा की और इसे चारों तरफ से घेर लिया परंतु अंग्रेजी प्रतिरोध के कारण वह दुर्ग पर अधिकार नहीं कर पाए। फ्रांसीसी दुर्ग पर घेरा डाले रहे बहुत संभव था कि अंग्रेजों को आत्मसमर्पण कर देना पड़ता। परंतु इसी समय क्लाईव ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया।फ्रांसीसीयों का ध्यान चित्रन्नापली से हटाने के लिए उसने चंदा साहब की राजधानी अकार्ट पर घेरा डाल दिया।बाध्य होकर चंदा साहब को चित्रन्नापली से ध्यान हटाकर अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिए सेना भेजनी पड़ी।परंतु डूप्ले एवं चंदा साहब की सेना कार्ट को क्लाईव से मुक्त नहीं करा सकी। यह डूप्ले और फ्रांसीसीयों की अंग्रेजों के हाथों पहली महत्वपूर्ण पराजय थी। इस पराजय ने डुप्ल की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं एवं उसके भाग्य का अंत कर दिया। इसे मध्य चित्रन्नापली भी अंग्रेजों के हाथ में आ गया चंदा साहब भागकर तंजौर पहुंचा जहां उसकी हत्या कर दी गई। अब अंग्रेजों का हिमायती मोहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बन बैठा। डूप्ले ने अपनी प्रतिष्ठा एवं शक्ति पुनः स्थापित करने का प्रयास किया जिसमें वह सफल रहा उसके कार्यों से अप्रसन्न होकर फ्रांस की सरकार ने 1754 ई. में उसे वापस बुला लिया। उसकी जगह गोडेहू आया जिसने अंग्रेजों से संधि कर देते कर्नाटक युद्ध का अंत किया।

कर्नाटक के द्वितीय युद्ध का महत्व-

प्रथम युद्ध की अपेक्षा कर्नाटक का द्वितीय युद्ध परिणामों के दृष्टिकोण से ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ सुंदरलाल के अनुसार या वह चट्टान है जिन से टकराकर इस देश के अंदर डुप्ले एवं फ्रांसीसीयों की समस्त आकांक्षाएं चूर-चूर हो गई। अंग्रेजों की स्थिति अब पहले से अधिक सुदृढ़ हो गई इस युद्ध ने देशी नरेशों का राजनीतिक खोखलापन विदेशियों पर पहले से भी अधिक स्पष्ट कर दिया। और उन्हें भारतीय राजनीति में खुलकर खेलने का मौका प्रदान किया।

दोस्तों आप लोगों ने इस आर्टिकल में ऊपर जाना कर्नाटक के प्रथम तथा द्वितीय युद्ध के बारे में अब हम आप सबको बताने जा रहे हैं कर्नाटक के तृतीय युद्ध के बारे में बस आप लोग इस आर्टिकल को अंदर तक पढ़े?

कर्नाटक का तृतीय युद्ध(The Third Karnataka War)

कर्नाटक का तृतीय युद्ध(1758-63)-

कर्नाटक के द्वितीय युद्ध ने भारत में आंग्ल फ्रांसीसी प्रतिद्वंदिता को समाप्त नहीं किया। यद्यपि फ्रांसीसियों को अंग्रेजों से अपमानजनक संधि करनी पड़ी थी। परंतु उनका मनोबल टूटा नहीं था। और वह मौके की तलाश में थे यूरोप में सप्त वर्षीय युद्ध (1756 ई.) के प्रारंभ होने के साथ ही पुनः दोनों शक्तियां भारत में एक दूसरे से भिड़ गई। इस समय तक (1758 ई.)बंगाल पर अंग्रेजों की विजय (प्लासी के युद्ध) में ने उनकी स्थिति और भी मजबूत कर दी थी। फलत: वह दूनी शक्ति और साधनों के साथ फ्रांसीसीयों को भारत से खदेड़ने के लिए कटिबद्ध हो गए।

भारत में फ्रांसीसी हितों की रक्षा तथा खोई हुई शक्ति और प्रतिष्ठा को लौटाने के लिए फ्रांस की सरकार ने 1757 ई. में अकाउंट लैली को भारत भेजा। 1758 ई. में वह भारत पहुंचा। वह एक वीर साहसी और कुशल सेनापति था। परंतु इसके साथ ही वह क्रोधी तथा हटी भी था। वह जोश में आकर बिना सोचे समझे निर्णय लेता था इस कारण उसे अपनी और अपने राष्ट्रीय हितों की बर्बादी मोल लेनी पड़ी।

भारत आते ही लैली ने सेंट डेविड के किले पर गोलाबारी कर उस पर अपना अधिकार जमा लिया।इसके बाद उसने तंजौर के शासक के विरुद्ध अपनी सेना भेजी। तंजौर के राजा पर फ्रांसीसी कंपनी का 56 या 70 लाख रुपय बाकी था। जिसे वह वसूलना चाहता था।फलत: उसने तंजौर पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों के हस्तक्षेप के कारण लैली को अपना घेरा वापस उठाकर लौटना पड़ा इससे फ्रांसीसियों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची।

तंजौर में पराजय का मुख देखने पर ले ली ने दक्षिण में अंग्रेजों के गण मद्रास पर आक्रमण करने की योजना बनाई। जिसका विरोध उसके कुछ सहकर्मियों ने पहले ही किया था। अपनी सहायता के लिए उसने बुसी को भी हैदराबाद से बुला लिया। यह लैली की एक बड़ी गलती थी इसके चलते हैदराबाद में भी फ्रांसीसियों की स्थिति कमजोर हो गई। 1758 ई. में फ्रांसीसी सेना ने मद्रास को घेर लिया इस स्थिति से निबटने के लिए क्लाईव ने कर्नल फोर्ड को मद्रास भेजा। जिसने मछलीपट्टनम पर अधिकार कर लिया। हैदराबाद के निजाम से भी अंग्रेजों ने संधि कर अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना लिया। इसी बीच एक अन्य जहाजी बेड़ा अंग्रेजों की मदद के लिए पहुंच गया।हलत: होकर मद्रास पर से लैली को अपना घेरा 1758 ई. में उठा लेना पड़ा।

इन घटनाओं ने लैली की स्थिति और अधिक कमजोर कर दी। उसके पास न तो पर्याप्त साधन थे और ना ही ग्रह सरकार से उसे पर्याप्त सहायता मिल सके। फिर भी लैली अंग्रेजों से छिटपुट युद्ध करता रहा। 1760 ई. में वांडीवाश का निर्णायक युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेज सेनापति और आयरकूट ने फ्रांसीसियों को बुरी तरह पराजित कर बुसी को गिरफ्तार कर लिया। मैलिसन के शब्दों में मार्टिन, डुमास और डूप्ले ने जिस शक्तिशाली इमारत के खड़े करने में योग दिया था। उसे इस युद्ध ने मिट्टी में मिला दिया। लैली की सारी आशाओं पर इसने पानी फेर दिया। पांडिचेरी के भाग्य को इसने चौपट कर दिया।

अब हताश होकर लैली ने मैसूर के शासक हैदर अली से अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता की याचना की: परंतु हैदर अली मदद का वादा कर ऐन मौके पर मुकर गया। अंग्रेजों ने मद्रास का बदला लेने के लिए पांडिचेरी पर घेरा डाल दिया। लैली ने अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया परंतु 8 महीने की घेराबंदी के पश्चात मजबूर होकर लैली को 1761 ई. में समर्पण कर देना पड़ा। पांडिचेरी पर अंग्रेजों का आधिपत्य कायम हो गया। उन लोगों ने माही और जिंजी पर भी कब्जा कर लिया।

युद्ध के परिणाम-

कर्नाटक के तृतीय युद्ध ने भारत में फ्रांसीसियों की सत्ता समूल नष्ट कर दी। इस युद्ध ने लैली का भी दुखद अंत किया। लैली की असफलता से अप्रसन्न होकर फ्रांस की सरकार ने उसे बंदी के रूप में वापस फ्रांस बुलाकर 1763 ई. में मृत्युदंड की सजा दे दी। इस युद्ध ने भारत में अंग्रेजों की सर्वोच्चता को अंतिम रूप से प्रतिष्ठित कर दिया। युद्ध के समाप्त होने पर (1763 ई.)दोनों पक्षों में संधि हो गई। पांडिचेरी पुनः फ्रांसीसियों को वापस मिल गया (पेरिस की संधि के द्वारा): परंतु उन्हें इसकी किलेबंदी करने का अधिकार नहीं दिया गया। इसके साथ ही बंगाल से भी फ्रांसीसियों का प्रभाव समाप्त कर दिया गया। अब अंग्रेज सही अर्थों में भारत के भाग्य विधाता बन गए। यद्यपि 1818 ई. तक फ्रांसीसी और अंग्रेजों में थोड़े – बहुत संघर्ष होते रहे, परंतु वास्तव में 1763 ई. में ही फ्रांसीसियों को परास्त कर अंग्रेजों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ स्थापित कर ली।

अस्वीकरण(Disclemar)

दोस्तों इस आर्टिकल में बताई गई जानकारी हमने अपने शिक्षा के अनुभव के आधार पर दिया है। इसलिए यह काफी हद तक सही है। अगर आपको इसमें कोई मिस्टेक दिखाई पड़ता है तो आप कमेंट करके बता सकते हैं।

Written by skinfo

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