in

कृषक की समस्याएं और ग्राम्य जीवन-krishak ki samsyayen Aur gramya jeevan

नमस्कार दोस्तों हमारे वेबसाइट में आप सब का बहुत-बहुत स्वागत है दोस्तों इस आर्टिकल में हम आप सबको बताने जा रहे हैं education se related ´´कृषक की समस्याएं और ग्राम्य जीवन´´ के बारे में दोस्तों कृषक वह है जो स्वयं कृषि कार्य में संलग्न है, जो अपने परिश्रम के आधार पर कृषि कार्य कर भूमि पर फसल और जाने का कार्य करता है। यह उपज चावल, गेहूं, मोटे अनाज और दालें आदि के रूप में खाद्यान्न हो सकता है, फल और सब्जी हो सकती है या कपास आदि के रूप में व्यापारिक फसल हो सकती है।

भारतीय कृषि की समस्याएं अथवा पैदावार में कमी के कारण( Bhartiya Krishi ki samasyaen athva paidavar mein Kami Ke Karan)

भारत में कृषि की समस्याओं तथा पैदावार में कमी के कारण की विवेचना निम्नलिखित रूपों में की जा सकती है।

1. खेती का पुराना ढंग – भारत में खेती का ढंग आज भी लगभग वही है जो हजारों वर्ष पहले था और बदलते हुए समय के अनुसार इस देश की कृषि व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन नहीं हो पाए हैं विश्व के अन्य देशों में जहां कृषि के लिए ट्रैक्टर, हार्वेस्टर और कम्बाइन जैसे यंत्रों का बहुत व्यापक आधार पर प्रयोग किया जाता है भारत में ´हरित क्रांति´ के दो तीन दशक बाद भी लगभग 25% किसानों ने ही कम-अधिक रूप में ट्रैक्टर, हार्वेस्टर आदि कृषि के आधुनिक साधनों को अपनाया है। अधिकांश भारतीय किसान आज भी अपने सदियों पुराने हल से चिपके हुए हैं और पूंजी की कमी के कारण उनके हलों के बैल भी मजबूत नहीं है। भारतीय किसानों के पास वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने के लिए आवश्यक साधन नहीं है और वह अपनी मनोवृति के कारण भी लकीर के फकीर हैं और वैज्ञानिक साधनों को अपनाने से हिचकते हैं। यह स्वाभाविक ही है कि उनके खेतों में पैदावार कम हो। 11वीं पंचवर्षीय योजना में जहां सामान विकास दर 7% से अधिक थी वहीं कृषि विकास की दर लगभग 3.2% थी।

2. खेतों का छोटा आकार और बिखरे हुए होना – कृषि की पैदावार कम होने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि खेत छोटे-छोटे टुकड़ों में बैठे हुए हैं और एक ही व्यक्ति के खेत एक स्थान पर ना होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरे हुए हैं। देश के सारे खेतों की संख्या 6.18 करोड़ है जिनमें से 4.4 करोड़ खेत 5 एकड़ से भी छोटे हैं। इसके कारण कृषक के खेतों में अनाज की पैदावार कम हो जाती है।

3. भूमि पर जनसंख्या का अत्याधिक दबाव – खेती पर जनसंख्या का बहुत अधिक दबाव होने के कारण हमारे किसान बेरोजगारी और अल्प-बेरोजगारी के शिकार बने हुए हैं। इसे बेकारी से उनकी गरीबी और कर्ज धारी बढ़ती जाती है और इसका कृषि की उत्पादकता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। 1951 में प्रति व्यक्ति भूमिगत भूमि की उपलब्धता 0.48 हेक्टेयर थी जो वर्तमान में घटकर 0.3 हेक्टेयर रह गई है। सरकारी अनुमानों के अनुसार वर्ष 2035 में प्रति व्यक्ति कृषि गत भूमि की उपलब्धता 0.08 हेक्टेयर होगी।

4. घटिया बीज और खाद – दूसरे देशों में कृषि कार्य के लिए अधिक से अधिक श्रेष्ठ बीज और खाद का प्रयोग किया जाता है किंतु अधिकांश भारतीय किसान आज भी कुछ तो साधनों के अभाव और कुछ अज्ञानता के कारण घटिया बीज का प्रयोग करते हैं और खाद का प्रयोग तो सामान्यतया उनके द्वारा किया ही नहीं जाता है। भारतीय किसान अपने पशुओं के गोबर और कूड़े – करकट को भी जला देता है या यूं ही फेंक देता है, जबकि इन्हें खाद बनाकर उपयोग में लाने से बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। विगत 4 दशकों में कुछ सुधार आया है लेकिन सुधार की गति बहुत धीमी है और आज भी स्थिति संतोषजनक नहीं है।

5. सिंचाई के साधनों में कमी – कृषि की पैदावार सिंचाई के साधनों पर निर्भर करती है और भारत में सिंचाई की सारी व्यवस्था प्रकृति की दया पर निर्भर है तथा वर्षा की अनिश्चितता के कारण भारतीय कृषि को ´मानसून के साथ खेला गया जुआ´ कहा जाता है। हमारे यहां कुल कृषि योग्य भूमि का केवल 44.3% भाग ही सिंचाई की व्यवस्था से लगभग उठाने की स्थिति में है और 55.7% कृषि योग्य भूमि को प्राकृतिक का ही आसरा है। प्रतिवर्ष ही कहीं अनावृष्टि और कहीं अतिवृष्टि की रिपोर्ट प्राप्त होती रहती है। सिंचाई के साधनों के अभाव में पैदावार का कम होना नितांत स्वाभाविक ही है।

6. शिक्षा का अभाव – भारतीय किसानों में साधारण शिक्षा और विशेषकर कृषि शिक्षा का नितांत अभाव है। कृषि शिक्षा के अभाव के कारण भारतीय किसान गोबर का खाद के रूप में प्रयोग नहीं करते और उसे जलाकर नष्ट कर देते हैं। इसी कारण किसान ओले, कीड़े-मकोड़े और टिड्डी दल से अपनी फसलों की रक्षा करने के साधन भी नहीं जानते। भारत सरकार और राज्य सरकारों द्वारा वर्तमान समय में कृषि को के लिए अनेक सुविधाओं की व्यवस्था की गई है किंतु सामान्य शिक्षा के अभाव में किसान इन सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पाते। शिक्षा की कमी उनके भाग्य वाद तथा रूढ़िवाद की पुष्टि करती रहती है और वह अपनी स्थिति में सुधार हेतु ठीक प्रकार से प्रयत्न हीं कर पाते।

कृषि की उन्नति के उपाय( Krishi ki Unnat ke upay)

1947 के पूर्व यह नितांत स्वभाविक ही था कि विदेशी शासन के द्वारा हमारे आर्थिक विकास की उपेक्षा की जाती। लेकिन कृषि हमारी राष्ट्रीय संपत्ति का सबसे प्रमुख अंग है और यही राष्ट्रीय आय का प्रधान स्रोत भी है। 2008-09 के आंकड़ों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 15.7% है। उल्लेखनीय है कि यह हिस्सा प्रतिवर्ष कम हो रहा है वर्तमान में खाद्यान्नों का उत्पादन 218 मिलियन टन ही है। अतः स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे राष्ट्रीय सरकार का ध्यान सबसे पहले कृषि के विकास की ओर गया और शासन के द्वारा कृषि के विकास हेतु विभिन्न उपाय किए गए। कृषि की उन्नति के लिए अब तक जो उपाय किए गए अथवा विभिन्न प्रकार के जो समस्त उपाय किए जाने चाहिए, उनके संक्षिप्त विवेचना निम्नलिखित रूपों में की जा सकती है :

1. नई भूमि पर खेती – वर्तमान समय में भारत में कृषि योग्य भूमि पर जनसंख्या का दबाव बहुत अधिक है और बंपर जनसंख्या के दबाव को कम करने का एक प्रभावशाली उपाय नई भूमि को खेती योग्य बनाया ही है। वर्तमान समय में भारत में कुल 1,412 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही खेती होती है और भूमिका काफी बड़ा क्षेत्र ऐसा है जिस पर कहीं जंगल कहीं बाढ़ और कहीं सिंचाई के बिना भूमि के बंजर होने के कारण खेती नहीं हो पाती है। इस प्रकार की 4 करोड़ हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि खेती के योग्य बनाई जा सकती है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में यह काम शुरू किया गया था और लगभग 9.7 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि को सुधार कर किसी योग बनाया गया था।

2. सिंचाई की श्रेष्ठ व्यवस्था – कृषि की उन्नत का दूसरा प्रमुख उपाय सिंचाई के साधनों की श्रेष्ठ व्यवस्था है। सिंचाई की अच्छी व्यवस्था से कृषि उपज का बढ़ना अनिवार्य है। सन 1950 तक इस देश की कृषि योग्य भूमि के सातवें भाग से कम ही में सिंचाई की सुविधा प्राप्त हुई थी, शेष भूमि को प्रकृति के सहारे रहना होता था। प्रथम पंचवर्षीय योजना में सिंचाई के साधनों में 30% की वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था। सिंचाई के नई नई योजनाएं क्रियान्वित की जा रही है जिनमें नदी घाटी बहुत देशीय योजनाएं अधिक महत्वपूर्ण है।

3. जनसंख्या पर नियंत्रण – देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए अतिरिक्त खाद्यान्न का प्रबंध एक टेढ़ी समस्या है। भारत के सर्वसाधारण का ध्यान इस समस्या की गंभीरता की ओर आकर्षित किया जाना चाहिए और सभी संभव उपायों द्वारा बढ़ती हुई जनसंख्या पर नियंत्रण रखा जाना चाहिए।

4. कृषि कार्य के लिए पूंजी का प्रबन्ध – कृषि विकास के लिए यह बहुत जरूरी है कृषि कार्य में अधिक पूंजी लगाई जाए। भारत में स्थिति ऐसी नहीं है कि किसान स्वयं बचत कर पूंजी का कृषि कार्य में प्रयोग कर सकें। अतः गरीब तथा छोटे किसानों को विभिन्न संस्थाओं द्वारा कर्ज दिलवाकर उसका उत्पादक कार्यों के लिए प्रयोग प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। राज्य के द्वारा एक और तो ग्रामों में सहकारी बैंक, व्यापारिक बैंक आदि बहुत व्यापक रूप से स्थापित किए जाने चाहिए, व दूसरी और स्वयं किसानों में बचत की आदत का विकास किया जाना भी बहुत आवश्यक है।

कृषिकों और ग्रामीण जीवन की समस्याएं( Krishkon aur Gramin Jivan ki samasyaen)

2011 की जनगणना के नए आंकड़ों के अनुसार पिछले 11 वर्षों में भारत की जनसंख्या 102.87 करोड़ से बढ़कर 133.70 करोड़ हो गई है। इस जनसंख्या का 68.8% गांव में निवास करता है तथा उसकी जीविका का मुख्य आधार कृषि है। ऐसे में देश में जब तक ग्रामीण जीवन की समस्याओं को हल नहीं किया जाता और किसी को की स्थिति में सुधार नहीं होता, तब तक किसी भी प्रकार की प्रगति संभव नहीं है। भारत में ग्रामीण जीवन और कृषिकों से संबंधित कुछ समस्याओं का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है :

1. घोर निर्धनता – भारत निर्धनता से पीड़ित है और इस देश का किसान (छोटा किसान और भूमिहीन भू-श्रमिक) विशेष रूप से निर्धनता से पीड़ित है नियोजित विकास के बावजूद आज लगभग 18% जनसंख्या गरीबी की सीमा रेखा के नीचे या आस-पास रहकर जीवन व्यतीत कर रही है। और इसी 18% का लगभग तीन चौथाई गांव में बसता है और वह किसान है।

2. अशिक्षा व अज्ञान – सन 2011 की जनगणना के अनुसार यद्यपि साक्षरता का प्रतिशत 64.8 से बढ़कर 82 दशमलव 14 हो गया है लेकिन महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत अवधि सन 2011 में 64.6 तक ही पहुंच पाया अर्थात अभी 1/4 जनसंख्या तथा 1/3 महिलाएं अशिक्षित हैं। इस अशिक्षा और अज्ञान के कारण वह साहूकार, पटवारी आदि सरकारी कर्मचारियों और अनाज व्यापारियों आदि से सभी के शोषण का शिकार होते हैं।

3. पशुपालन की बुरी स्थिति – कृषि के बाद भारतीय किसानों के सामने यदि कोई दूसरा आर्थिक कार्य है तो वह है पशुपालन। जनसंख्या की ही भांति भारत में पशुधन की बहुतायत है। अनुमान है कि भारत में लगभग 25 करोड़ पशु हैं, पर उनकी दशा अच्छी नहीं है। पशु स्वास्थ्य नहीं है उनके कार्य क्षमता कम है और उनमें अधिकांश आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद नहीं हैं। पशुओं की एक गिरी हुई स्थिति के प्रमुखतया तीन कारण बताए जा सकते हैं – घटिया नस्ल आप और खुराक और बीमारियां। उत्तर प्रदेश राज्य के विभिन्न जिलों में पशुधन विकास के लिए समन्वित योजनाएं क्रियान्वित की जा रही हैं। पशुओं की नस्ल सुधार के लिए स्थान स्थान पर कृत्रिम गर्भाधान केंद्र और पशु चिकित्सालयों की स्थापना की गई है, किंतु इस दिशा में और अधिक शीघ्रतापूर्वक प्रयत्न किए जाने आवश्यक है।

4. कृषि सम्बन्धी खोजों को ना अपनाना – विदेशों में खेती के क्षेत्र में नित नई खोजें होती हैं और उन्हें व्यवहार में लाकर लाभ उठाया जाता है। लेकिन भारत में कृषि के क्षेत्र में कुछ खोजे हुई, तो जिन्होंने हरित क्रांति को जन्म देकर देश को खाद संकट से बचाया, लेकिन सामान्यतया खोजें कम होती हैं। जो थोड़ी बहुत खोजें हुई हैं उनके लाभ संपन्न किसानों ने ही उठाएं हैं। यद्यपि केंद्र सरकार ने कृषि तकनीकी को किसानों तक ले जाने के लिए लैब टू लैण्ड कार्यक्रम की शुरुआत की है, लेकिन पर्याप्त संसाधनों व जानकारी के अभाव में सभी किसानों को नई तकनीकी का लाभ नहीं मिल पाता है।

निष्कर्ष(conclusion)

दोस्तों कृषक के संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि वह स्वयं कृषि करता है। उसके द्वारा कृषि कार्य में अपने परिवार के सदस्यों की सहायता ली जाती है और वह कृषि-कार्यों के लिए आवश्यकता अनुसार मजदूर भी लगा सकता है, लेकिन उसे स्वयं कृषि कार्य में संलग्न होना नितांत आवश्यक है।

अस्वीकरण(Disclemar) दोस्तों

दोस्तों इस आर्टिकल में ´´कृषक उसकी समस्याएं और ग्राम्य जीवन´´ की जानकारी हमने अपने स्टडी के माध्यम से दी है इसलिए यह आर्टिकल काफी हद तक सही है। अगर आप सबको इसमें कोई मिस्टेक दिखाई पड़ता है, तो आप लोग कमेंट करके बता सकते हैं।

Written by skinfo

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

राजनीतिक दल का अर्थ और परिभाषा-Rajneetik Dal ka Arth aur Paribhasha

नगरीय जीवन की समस्याएं-Nagariy jeevan ki Samasyayen