नमस्कार दोस्तों आप सबका हमारे वेबसाइट में बहुत-बहुत स्वागत है आज हम इस आर्टिकल में आपको बताने जा रहे हैं न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के उपाय दोस्तों न्यायपालिका का कार्य क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है और उसके द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्य किए जाते हैं लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक संपन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतंत्र हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता से हमारा आशय यह है, कि न्यायपालिका को कानून की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के संबंध में स्वतंत्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्तव्य पालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाय रखने के लिए निम्न उपाय अपनाए जाने चाहिए:
1. | न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग (अ) जनता द्वारा निर्वाचन (ब) व्यवस्थापिका सभा द्वारा निर्वाचन (स) कार्यपालिका द्वारा मनोनयन |
2. | लम्बी पदा वधि |
3. | पद की सुरक्षा |
4. | न्यायाधीशों का वेतन |
5. | न्यायाधीशों की योग्यता |
6. | अवकाश प्राप्त के बाद वकालत तथा सरकारी पद प्राप्त पर निषेध |
7. | कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण |
8. | न्यायिक प्रक्रिया पर नियंत्रण |
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग – न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में निम्नलिखित तीन विधियां प्रचलित हैं :
(अ) जनता द्वारा निर्वाचन – मांटेसक्यू के शक्ति – पृथक्करण सिद्धांत से प्रभावित होने के कारण सर्वप्रथम फ्रांस में न्यायाधीशों की जनता द्वारा निर्वाचित होने की पद्धति को अपनाया गया था और वर्तमान समय में यह पद्धति स्विट्जरलैंड के कुछ कैंटरनो और अमेरिकी संघ के कुछ राज्यों में ही प्रचलित है। इस पद्धति को सख्त विभाजन सिद्धांत और लोकतांत्रिक है शासन व्यवस्था के अनुकूल बताया जाता है, किंतु वास्तव में यह पद्धति बहुत अधिक दोषपूर्ण है यह एक तथ्य है कि यदि जनता द्वारा न्यायाधीशों के निर्वाचन की पद्धति को अपना लिया गया तो, योग्य व्यक्ति न्यायाधीश के पद पर आसीन नहीं हो सकेंगे। योग्यता और लोकप्रियता दो पृथक चीजें है और चुनाव में विजय लोकप्रियता के आधार पर प्राप्त की जाती है योग्यता के आधार पर नहीं।
इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में प्रत्येक प्रकार का निर्वाचन दलबंदी के साथ जुड़ा होता है। न्यायाधीश जब राजनीतिक दल की सहायता से चुनाव लड़ कर अपना पद प्राप्त करेंगे, तो उनमें दलीय आधार पर पक्षपात करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाएगी। वस्तुतः निर्वाचित न्यायाधीश, न्यायाधीश कम और राजनीतिक अधिक होंगे। लास्की ने ठीक ही कहा है, न्यायाधीश की नियुक्ति की समस्त पंक्तियों में जनता द्वारा निर्वाचित की पद्धति निर्विवाद रुप में सबसे बुरी है।
(ब) व्यवस्थापिका सभा द्वारा निर्वाचन – अमेरिकी संघ के कुछ अन्य राज्यों, पूर्व सोवियत संघ और स्विट्जरलैंड में न्यायाधीशों का निर्वाचन व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है, किंतु यह पद्धति न्यायपालिका को व्यवस्थापिका के अधीन बना देती है। इस पद्धति में न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार उनका कानूनी ज्ञान एवं अनुभव, निष्पक्षता और योगिता नहीं, वरन् राजनीतिक दल के नेताओं की कृपा होती है और इस प्रकार के न्यायाधीश कभी भी निष्पक्षता पूर्वक न्याय प्रदान करने का कार्य नहीं कर सकते। व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचित ये न्यायाधीश राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेंगे, जिसके परिणाम स्वरुप उनकी योग्यता निम्न स्तर की हो जाएगी और वह न्यायाधीश पद के कर्तव्यों का उचित रूप से निर्वाह नहीं कर सकेंगे।
(स) कार्यपालिका द्वारा मनोनयन – इस पद्धति में न्यायाधीशों को कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किया जाता है और विश्व के लगभग सभी राज्यों में यही पद्धति प्रचलित है। सिद्धांत रूप से शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के विरुद्ध होने पर भी व्यवहार में यही पद्धति श्रेष्ठ है। कार्यपालिका द्वारा अपनी इस शक्ति का दुरुपयोग ना किया जा सके, इसके लिए यह प्रतिबंध लगाया जा सकता है कि कार्यपालिका सर्वमान्य न्याय की योग्यता वाले व्यक्तियों या स्थायी न्यायिक समिति के परामर्श के आधार पर ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करे। लास्की ने लिखा है कि´´ इस विषय में सभी बातों को देखते हुए न्यायाधीशों की कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति के परिणाम सबसे अच्छे रहे हैं, परंतु यह अति आवश्यक है कि न्यायाधीशों के पदों को राजनीतिक सेवा का फल नहीं बनाया जाना चाहिए।
2. लम्बी पदावधि – यदि न्यायाधीशों को थोड़े समय के लिए ही नियुक्त किया जाए तो इससे उनकी स्वतंत्रता का अंत हो जाता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा लम्बी अवधि की नियुक्ति द्वारा ही हो सकती है। इसलिए न्यायाधीशों का कार्यकाल अवकाश प्राप्त करने की अवधि तक रहना चाहिए।
3. पद की सुरक्षा – न्यायाधीशों की स्वतंत्रता की रक्षा में पद की सुरक्षा का भी विशेष महत्व है। न्यायाधीशों की पदच्युति की पद्धति काफी जटिल होनी चाहिए ताकि न्यायाधीश किसी व्यक्ति या दल विशेष की दया पर निर्भर ना रहे। इसी कारण अधिकांश राज्यों में न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के संबंध में महाभियोग की व्यवस्था है। महाभियोग की पद्धति पर्याप्त जटिल होती है और अपनी इस जटिलता के कारण श्रेष्ठ भी है। यदि न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने की पद्धति सरल हो, तो उसे पद्धति का दुरुपयोग किए जाने की आशंका उत्पन्न होती है। भारत में अभी तक किसी भी न्यायाधीश के विरुद्ध इसी जटिलता के कारण सफलतापूर्वक महाभियोग नहीं लगाया जा सका है।
4. न्यायाधीशों का वेतन – हैमिल्टन ने अपनी पुस्तक राजनीति के तत्व (Elements of Politics)में लिखा है कि´´ यह मानव स्वभाव है कि जो व्यक्ति अपनी आजीविका की दृष्टि से शक्ति संपन्न है उनके पास संकल्प शक्ति का भी बड़ा बल होता है।´´ यह कथन पूर्ण सत्य है और उसक आधार पर कहा जा सकता है कि न्यायाधीशों की स्वतंत्रता के लिए उन्हें निश्चित और पर्याप्त वेतन दिया जाना चाहिए। अल्प वेतनभोगी न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार का शिकार होने की आशंका सदैव बनी रहती है। यह वेतन उनकी कार्यविधि में घटाया नहीं जा सकता।
5. न्यायाधीशों की योग्यता – न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह आवश्यक है कि न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को प्रदान किया जाए जिनकी व्यवसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि राज – व्यवस्था के संचालन में न्याया धिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्व को नष्ट कर देंगे।
6. अवकाश प्राप्ति के बाद वकालत तथा सरकारी पद प्राप्त पर निषेध – शक्ति के दूषित प्रयोग को रोकने के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीश को अवकाश प्राप्त के बाद वकालत करने के लिए निषेध किया जाए। इस संबंध में इतनी व्यवस्था तो अवश्य ही की जानी चाहिए कि एक व्यक्ति जिन न्यायालयों में न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो, कम से कम उम्र न्यायालयों या उनके क्षेत्राधिकार के अंतर्गत अन्य न्यायालयों में वकालत कार्य ना कर सके। भारत सहित कई देशों में या व्यवस्था है कि न्यायाधीश सेवा निवृत्त निवृत्ति के बाद सरकारी सेवा का पद नहीं प्राप्त कर सकते।
7. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सप्ताह अभियोक्ता(Prosecutor) और साथ ही साथ न्यायधीश होने पर स्वतंत्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है। इसी बात को दृष्टि में रखते हुए भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्व में कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक रखने की बात कही गई है और भारतीय संघ के अधिकांश इकाइयों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से प्रत्येक कर दिया गया है।
8. न्यायालय के प्रशासन तथा न्यायिक प्रक्रिया पर नियंत्रण – भारत सहित कई देशों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका को अपने कर्मचारियों व अधिकारियों तथा न्यायिक प्रक्रिया पर नियंत्रण का अधिकार दिया गया है। उपर्युक्त व्यवस्थाएं की जाने पर ही इस बात की आशा की जा सकती है कि न्यायाधीश स्वतंत्रता पूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन कर सकेंगे।
निष्कर्ष(conclusion)
दोस्तों हम आशा करते हैं कि आप लोगों ने इस आर्टिकल को अन्य तक पढ़ा होगा दोस्तों इस आर्टिकल में निष्कर्ष यह निकल कर आता है, कि व्यक्ति एक विचारशील प्रणाली है और इसके साथ-ही-साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने कुछ विशेष स्वार्थ भी होते हैं। व्यक्ति के विचारों और उनके स्वार्थों में इस प्रकार के भेद होने के कारण उनमें परस्पर संघर्ष नितांत स्वभाविक है। इसके अतिरिक्त शासन कार्य करते हुए शासक वर्ग अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में सदैव ही एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता रहती है जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवादों को हल कर सके और शासक वर्ग को अपनी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य कर सके।
अस्वीकरण(Disclemar)
दोस्तों इस आर्टिकल में बताई गई जानकारी हमने अपने स्टडी के माध्यम से दी है इसलिए यह काफी हद तक सही है। अगर आप सबको इस आर्टिकल में कोई मिस्टेक दिखाई पड़ता है, तो आप लोग कमेंट करके बता सकते हैं।