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संसदात्मक व अध्यक्षात्मक शासन की विशेषताएं-Sansdatmak va Adhykshatmak Visheshtaen

नमस्कार दोस्तों आप सब का हमारे व्यवसाय में बहुत-बहुत स्वागत है आज हम बात करने जा रहे हैं दोस्तों संसदात्मक व अध्यक्षात्मक शासन की विशेषताएं के बारे में। दोस्तों अगर आप लोग किसी कंपटीशन एग्जाम की तैयारी कर रहे तो आप सबके लिए यह आर्टिकल अति महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। दोस्तों संसदात्मक शासन प्रणालियों के वर्गीकरण का एक प्रमुख आधार या है कि व्यवस्था व कार्यपालिका में घर लिस्ट संबंध है अथवा नहीं तथा कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदाई है अथवा नहीं संसदात्मक शासन की व्यवस्था है जिसके अंतर्गत व्यवस्थापिका और कार्यपालिका परस्पर संबंधित होती है और कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदाई होती है। कार्यपालिका के व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदाई होने के कारण इसे उत्तरदाई शासन कहा जाता है। उत्तरदायित्व का तात्पर्य है कि व्यवस्थापिका कभी भी कार्यपालिका के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे अपदस्थ कर सकती है।

तो चलिए दोस्तों अब हम लोग इस आर्टिकल में आगे बढ़ते हैं और जानते हैं विस्तार पूर्वक संसदात्मक व अध्यक्षात्मक शासन की विशेषताएं

संसदात्मक शासन की विशेषताएं(Sansdatmak shasan ki visheshtaen)

दोस्तों संसदात्मक शासन की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित कही जा सकती हैं:

1.नाम मात्र की वह वास्तविक कार्यपालिका का भेद
2.व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में घनिष्ठ संबंध
3.कार्यपालिका के कार्यकाल की अनिश्चितता
4.मंत्रीमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व
5.व्यक्तिगत उत्तरदायित्व
6.प्रधानमंत्री का नेतृत्व

1. नाम मात्र की वह वास्तविक कार्यपालिका का भेद– इसे शासन व्यवस्था में नाम मात्र की वह वास्तविक कार्यपालिका में भेद होता है

राज्य का प्रधान नाम मात्र की कार्यपालिका होती है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मंत्रिपरिषद होती है नाम मात्र की यह कार्यपालिका इंग्लैंड के सम्राट की तरह वंशक्रमानुगत या भारत के राष्ट्रपति की तरह निर्वाचित हो सकती है प्रत्येक स्थिति में सैद्धांतिक तौर पर वह पूर्ण शक्ति संपन्न होती है लेकिन व्यवहार में उसकी शक्तियों का प्रयोग वास्तविक कार्यपालिका अर्थात मंत्रिपरिषद द्वारा ही किया जाता है।

2. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में घनिष्ठ संबंध– इसके अंतर्गत व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका एक दूसरे से पृथक ना होकर परस्पर भली स्वरूप से संबंधित होती हैं। कार्यपालिका की नियुक्ति व्यवस्थापिका मैं से की जाती है और कार्यपालिका अपने कार्यों और नीतियों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है।

3. कार्यपालिका के कार्यकाल की अनिश्चितता– इस शासन में कार्यपालिका अर्थात मंत्री परिषद का कार्यकाल निश्चित नहीं होता है। कार्यपालिका उसी समय तक अपने पद पर बनी रह सकती है जब तक कि उसे व्यवस्थापिका का विश्वास प्राप्त होता है।

4. मंत्रीमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व– संसदात्मक व्यवस्था का एक अन्य सिद्धांत संसद के प्रति मंत्रिमडल का सामूहिक उत्तरदायित्व है। प्रशासनिक निश्चित करने का कार्य मंत्री मंडल द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है, मंत्रिमंडल एक इकाई के रूप में कार्य करता है और सभी मंत्री एक-दूसरे के निर्णय और कार्यों के लिए उत्तरदायी होते हैं। यदि संसद का निम्न सदन किसी एक मंत्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर अथवा उस विभाग से संबंधित विधेयक को रद्द कर दे तो समस्त मंत्रिमंडल को त्यागपत्र देना होता है।

5. व्यक्तिगत उत्तरदायित्व– प्रत्येक मंत्री अपने अधीन विभाग का प्रबंधक होता है। इस प्रकार उसे व्यक्तिगत रूप से वह विभाग को सुयोग्य ढंग से चलाने के लिए विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी रहना होता है।

6. प्रधानमंत्री का नेतृत्व– प्रधानमंत्री का नेतृत्व इस पद्धति की अन्य विशेषता है और सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का पालन प्रधानमंत्री के नेतृत्व में ही किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल का नेता होता है। वह मंत्रियों की नियुक्ति करता, उनमें विभागों का वितरण करता, उनके कार्यों में सामंजस्य स्थापित करता, उनके विभागों का निरीक्षण करता और पदच्युत कर सकता है। प्रधानमंत्री मंत्रीमंडल रूपी उन राजनीतिक खिलाड़ियों की टीम का नेता होता है, जिसके नेतृत्व में मंत्रिमंडल राजनीति खेल खेलता है।

संसदात्मक शासन के गुण(Sansdatmak Shasan ke gun)

1.व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग
2.शासन व्यवस्था जनता के प्रति उत्तरदायी
3.आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन संभव
4.योग्यतम अनुभवी एवं लोकप्रिय व्यक्तियों का शासन

1. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग– दोस्तों मानव शरीर के समान ही शासन व्यवस्था में भी एक प्रकार की आंगिक एकता होती है और श्रेष्ठ प्रशासन के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि प्रशासन के इन अलग-अलग अंगों में सहयोग हो संसदात्मक शासन में ही इस प्रकार का सहयोग पाया जाता है और इस प्रकार के सहयोग के परिणाम स्वरूप शासन कुशलतापूर्वक किया जा सकता है। दोनों के मध्य इस प्रकार के सहयोग का आधार यह है कि सत्ताधारी दल (कार्यपालिका) का दोस्त था पिका में बहुमत होता है तथा कार्यपालिका के सदस्य व्यवस्थापिका में से ही लिए जाते हैं। इस शासन – व्यवस्था में परस्पर सहयोग के द्वारा ठीक प्रकार के कानूनों का निर्माण किया जा सकता है और उन्हें ठीक प्रकार से कार्य रूप में परिणत करते हुए प्रशासन को जनकल्याणकारी बनाया जा सकता है।

2. शासन व्यवस्था जनता के प्रति उत्तरदायी – संसदात्मक शासन में मंत्रिमंडल व्यवस्थापिका के सदस्य होते हैं और इस रूप में जनता के प्रतिनिधि होते हैं। ये मंत्री गण व्यवस्थापिका के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मंत्री लोगों को अपने पद पर बने रहने के लिए जनता के दृष्टिकोण का ध्यान रखकर उसके अनुसार कार्य करता है और इस प्रकार शासन – व्यवस्था का संचालन आवश्यक रूप से जनता के हित में होता है।

3. आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन संभव – संसदात्मक शासन में इस बात की गुंजाइश रहती है की आवश्यकता अनुसार राज शक्ति का प्रयोग करने वाले व्यक्तियों में परिवर्तन किया जा सके

4. योग्यतम अनुभवी एवं लोकप्रिय व्यक्तियों का शासन – संसदात्मक शासन – व्यवस्था में जिन सदस्यों को अपने अनुभव एवं योग्यता के आधार पर व्यवस्थापिका, अपने राजनीतिक दल और देश की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है, वे व्यक्ति मंत्री परिषद के सदस्य नियुक्त किए जाते हैं। व्यवस्थापिका के योग्य और अनुभवी सदस्य होने के कारण ने शासन कार्य के आधारभूत सिद्धांतों का पूर्ण ज्ञान होता है।

संसदात्मक शासन के दोष(Sansdatmak Shasan ke dosh)

इस प्रकार के गुणों के साथ-साथ संसदात्मक शासन के कुछ दोष भी हैं जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं:

1. दलिय तानाशाही का भय – संसदात्मक शासन में राज शक्ति संपूर्ण जनता के साथ लेना रहकर एक दल विशेष के साथ में रहती है। व्यवस्थापिका के लोकप्रिय सदन में जिस राजनीतिक दल को बहुमत प्राप्त होता है, उसी राजनीतिक दल के हाथ में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्ति निहित होती है। शासन के इन दोनों अंगों की शक्ति एक ही राजनीतिक दल के साथ में निहित होने के कारण वह राजनीतिक दल मनमाने तरीके से इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है। दलिय तानाशाही का भय हम अपने देश में 1975 में देख चुके हैं। जब तत्कालीन सरकार ने लोकसभा में अपने बहुमत के बल पर देश में राष्ट्रीय आपात लागू किया तथा विरोधियों का दमन किया। इसके अतिरिक्त एक बार सत्ता अपने हाथ में आ जाने पर राजनीतिक दल भ्रष्ट उपायों को अपनाकर सत्ता अपने हाथ में रखने का प्रयत्न भी कर सकता है।

2. निर्बल शासन – संसदात्मक शासन में कोई एक ऐसा व्यक्त नहीं होता है जिसके हाथों में शासन की संपूर्ण शक्ति हो और जो राज्य के सुशासन के लिए उत्तरदायी हो। शासन की इस निर्भरता के कारण आवश्यक निर्णय लेने में काफी समय लग जाता है और निर्णय को गुप्त रखने में भी कठिनाई होती है। शासन किया निर्भरता युद्ध या अन्य संकटकालीन परिस्थितियों में तो असहनीय हो जाती है।

3. कार्यपालिका की अस्थिरता – इस शासन व्यवस्था में कार्यपालिका का कार्यकाल व्यवस्थापिका के विश्वास पर निर्भर होने के कारण निश्चित नहीं होता है। कार्यकाल की इस अस्थिरता के कारण मंत्रिमंडल ठीक प्रकार से प्रशासनिक कार्य नहीं कर पाता है। जिस देश में छोटे-छोटे अनेक राजनीतिक दल हो, वहां पर तो मंत्रिपरिषद में जल्दी-जल्दी परिवर्तन के कारण शासन कार्य संभव ही हो जाता है। 1946 से 1958 तक फ्रांस में और चतुर्थ आम चुनाव के बाद भारतीय संघ के बिहार हरियाणा पंजाब उत्तर प्रदेश आज राज्यों में या बात प्रत्यक्षत: देखी गई है। 1979 में और उसके बाद 1990 – 91 में तथा 1996 – 99 में भारत में केंद्रीय स्तर पर भी राजनीतिक अस्थायित्व की स्थिति रही।

4. अयोग्य व्यक्तियों का शासन – संसदात्मक शासन में मंत्री परिषद का निर्माण योग्यता एवं विभागीय ज्ञान के आधार पर नहीं किया जाता है। जनता के लोकप्रिय होना यह दल का नेता होना एक बात है और उत्तम शासन होना दूसरी बात है। संसदात्मक शासन के मंत्री अनेक बार स्वयं से संबंधित विभाग के संबंध में किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं रखते हैं और उसके परिणाम स्वरूप शासन का संचालन अयोग्यता

4. संकट काल के समय कार्यपालिका की निर्मलता – संसदात्मक शासन युद्ध या अन्य संकटकाल की स्थिति में बहुत अधिक निर्बल होता है। ऐसी स्थिति में मंत्रिमंडल को ना केवल युद्ध का संचालन यस संकटकल का सामना करना पड़ता है, वरन इसके साथ ही व्यवस्थापिका में दिन-प्रतिदिन की आलोचना भी सहन करनी होती है और यह आलोचनाएं मंत्री परिषद के कार्य में बाधक होती है।

दोस्तों इस आर्टिकल में ऊपर आपने जाना संसदात्मक शासन के बारे में अब हम नीचे इस आर्टिकल में जानते हैं अध्यक्षात्मक शासन के बारे में?

अध्यक्षात्मक शासन(Adhykshatmak Shasan)

जिस शासन – व्यवस्था में कार्यपालिका प्रधान व्यवस्थापिका से बिल्कुल अलग होता है और शासन विभाग का प्रधान एक ऐसा व्यक्त होता है जो व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है उसे अध्यक्षात्मक शासन कहते हैं।

अध्यक्षात्मक शासन की विशेषताएं(Adhykshatmak Shasan ki Visheshtaen)

इसे शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं

1. कार्यपालिका का कार्यकाल निश्चित
2. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका एक दूसरे से पृथक
3.नाम मात्र की और वास्तविक कार्यपालिका अलग-अलग नहीं
4. मंत्रियों का राष्ट्रपति के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व

1. कार्यपालिका का कार्यकाल निश्चित – कार्यपालिका के प्रधान का निर्वाचन एवं निश्चित समय के लिए किया जाता है और महाभियोग के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से उसे उसके कार्यकाल के पूर्व उसके पद से नहीं हटाया जा सकता है।

2. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका एक – दूसरे से पृथक – या शासन व्यवस्था मानटेसक्यू के शक्ति – पृथक्करण सिद्धांत पर आधारित है और इसमें कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका एक दूसरे से स्वतंत्र रहती हैं। व्यवस्थापिका और कार्यपालिका एक दूसरे के कार्यों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करतीं।

3. नाम मात्र की और वास्तविक कार्यपालिका अलग-अलग नहीं – इस शासन में संसदात्मक शासन के समान नाममात्र की और वास्तविक कार्यपालिका अलग-अलग नहीं होती हैं। राष्ट्रपति, जो देश का वैधानिक प्रधान होता है, व्यवहार में भी कार्यपालिका शक्तियों का उपभोग करता है।

4. मंत्रियों का राष्ट्रपति के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व – अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में यद्यपि कार्यपालिका समूह क्या व्यक्तिगत रूप से व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती, मंत्री गण व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होते हैं। उनका अपना कोई स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व नहीं होता।

अध्यक्षात्मक शासन के गुण(Adhykshatmak Shasan ke gun)

अध्यक्षात्मक शासन के प्रमुख गुण निम्नलिखित कहे जा सकते हैं:

1. शासन में स्थापित
2.असाधारण परिस्थितियों के लिए उपयुक्त
3. प्रशासन में एकता
4. शासन में कुशलता

1. शासन में स्थायित्व – इस शासन-व्यवस्था में कार्यपालिका प्रधान एक निश्चित समय के लिए चुना जाता है। व्यवस्थापिका का निर्माण भी एक निश्चित समय के लिए होता है और इस अवधि के पूर्व दोनों में से किसी को नहीं हटाया जा सकता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत शासन में स्थापित होने के कारण दीर्घकालीन योजना बनाकर ठीक प्रकार से प्रशासनिक कार्य किए जा सकते हैं।

2. असाधारण परिस्थितियों के लिए उपयुक्त – अध्यक्षात्मक शासन में एक ही व्यक्ति के हाथों में समस्त शक्तियों का जो केंद्रीकरण होता है, उसके फलस्वरूप संकटकाल में यह पद्धति बहुत उपयोगी सिद्ध होती है। ऐसे असाधारण अवसरों पर राष्ट्रपति शीघ्र ही प्रभावशाली कार्यवाही कर्ज संकट का सफलतापूर्वक सामना कर सकता है

3. प्रशासन में एकता – यह शासन व्यवस्था में संपूर्ण शासन शक्ति एक ही व्यक्ति के हाथ में होती है और इस व्यक्ति के कार्यों को व्यवस्थापिका की स्वीकृत की भी आवश्यकता नहीं होती है। प्रशासनिक एकता के परिणाम स्वरूप शासन बहुत अधिक शक्तिशाली रूप से कार्य कर सकता है।

4. शासन में कुशलता – अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका व्यवस्थापिका से स्वतंत्र होने के कारण अधिक साहस और स्वतंत्रता के साथ प्रशासनिक कार्य कर सकती है। मंत्री लोगों को व्यवस्थापिका के कार्यों में भाग लेने और लोकप्रिय होने के लिए समय खर्च नहीं करना पड़ता। इसलिए वह अपनी समस्त शक्ति और समय का उपयोग अपने शासन कार्य म कर सकते हैं। राष्ट्रपति के द्वारा विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों को मंत्री पद पर नियुक्त कर प्रशासनिक कार्य में अधिक कुशलता लाई जा सकती है।

अध्यक्षात्मक शासन के दोष(Adhykshatmak Shasan ke dosh)

अध्यक्षात्मक शासन के प्रमुख दोष निम्नलिखित कहे जा सकते हैं:

1. परिवर्तन शीलता का अभाव
2. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग का अभाव
3.कम राजनीतिक शिक्षा

1.परिवर्तनशीलता का अभाव – इस शासन व्यवस्था में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका प्रधान का चुनाव एक निश्चित समय के लिए किया जाता है और इस निश्चित अवधि के पूर्व दोनों में से किसी को भी उसके पद से नहीं हटाया जा सकता है। यदि इस अवधि के बीच कुछ ऐसे परिस्थितियां उत्पन्न हो जाएं जिनके कारण शासन में परिवर्तन करना आवश्यक हो तो ऐसा करना संभव नहीं हो पाता है। इसके विपरीत संसदात्मक शासन में आवश्यकता अनुसार परिवर्तन किए जा सकते हैं।

2. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग का अभाव – अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था का प्रमुख दोष व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग और सामंजस्य का अभाव है। प्राणी शरीर के समान ही प्रशासन में भी एक प्रकार की आंगिक कता पाई जाती है और प्रशासन कार ठीक प्रकार से करने के लिए विभिन्न विभागों में सहयोग होना अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार से सहयोग के अभाव में कानून निर्माण और प्रशासन दोनों ही कार्य ठीक प्रकार से नहीं हो पाते।

3. कम राजनीतिक शिक्षा – अध्यक्षात्मक शासन में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के बीच संबंध ना होने के कारण जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होने का अवसर बहुत कम हो जाते हैं।

अस्वीकरण(Disclemar)

दोस्तों यह पोस्ट हमने अपने शिक्षा के अनुभव के आधार पर लिखा इसलिए काफी हद तक सही है अगर आप सबको इस आर्टिकल में कोई मिस्टेक दिखाई पड़ता है तो आप कमेंट करके बता सकते हैं उसे सुधारने का प्रयत्न करूंगा

Written by skinfo

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